2023-07-11 06:21:29
दलित पैंथर एक
सामाजिक-राजनीतिक
संगठन है जो दलितों का
प्रतिनिधित्व करने तथा
दलितों और पिछडों में प्रबोधन लाने
के उद्देश्य से स्थापित हुआ। दलित
पैंथर की स्थापना नामदेव ढसाल एवं
जे.वी. पवार द्वारा 21 मई सन 1972
में मुंबई, महाराष्ट्र में की गयी थी,
जिसने बाद में एक बड़े आंदोलन का
रूप ले लिया। नामदेव ढसाल, राजा
ढाले व अरुण कांबले इसके
आरंभिक व प्रमुख नेताओं में हैं। इन
तीनों ने दलित पैंथर को पूर्व दलित
आंदोलनों से अलग एक उग्र रूप देने
का निर्णय लिया। अपने शुरूआती
दिनों में ही दलित पैंथर ब्लैक पैंथर
से काफी प्रेरित था एवं आक्रामकता
पर ज्यादा निर्भर था। दलित पैंथर
1960 के दशक में अपने उत्थान पर
था। 1960 के दशक में कई अन्य
दलित-बौद्ध संस्थाओं ने दलित पैंथर
के साथ हाथ मिलाया। ब्लैक पैंथर
पार्टी ने २०वीं सदी में अमेरिका में
हुए अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक
अधिकार आंदोलन के दौरान
अफ्रीकी अमेरिकी नागरिकों के
अधिकारों के लिए आवाज उठाने में
एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।
दलित शब्द की परिभाषा
दलित पैंथर्स ने जो घोषणा पत्र
प्रकाशित किया, उसमें दलित कौन?
उप-शीर्षक में दलित शब्द की परिभाषा
दी गई है. इसी घोषणा पत्र में दुनिया
के दलितों से हमारा रिश्ता शीर्षक में
दलित पैंथर्स लिखते हैं अमेरिका के
मुट्ठी भर प्रतिक्रियावादी गोरे लोगों के
अत्याचारों के विरुद्ध ब्लैक पैंथर
आंदोलन ने संघर्ष की चिंगारी
सुलगाई. इन्हीं सुलगती चिंगारियों से
भड़के आंदोलन से हमारा रिश्ता है।
घोषणा पत्र के मुताबिक दलित का मतलब है-
अनुसूचित जाति,
कामगार,
भूमिहीन
मजदूर, कृषि-
मजदूर, गरीब
किसान, खानाबदोश
जातियां, आदिवासी
और नारी समाज। इतने
व्यापक दायरे को अपने भीतर
समेटने वाला दलित पैंथर आंदोलन
कोई संकुचित आंदोलन नहीं था. यह
विश्व मानवता की एकता में विश्वास
करता था। पवार स्वयं राजा ढाले,
दयानंद म्हस्के, उमाकांत रणधीर,
रामदास आठवले, अरुण कांबले,
के.वी गमरे, गंगाधर गाड़े, नामदेव
ढसाल, अविनाश महातेकर के साथ
दलित पैंथर के अग्रिम पंक्ति के
व्यक्तित्वों में रहे हैं. वे नामदेव ढसाल
के साथ दलित पैंथर के सह-संस्थापक
भी हैं. उन्होंने घर-घर जाकर आरंभिक
चरण में बंबई के मराठी दलित युवकों
को दलित पैंथर से जोड़ने का अभियान
चलाया था।
दलित पैंथर के जन्म की कहानी
दलित पैंथर के गठन की पृष्ठभूमि को
यदि हम देखें तो, इसके गठन के पीछे
10 अप्रैल, 1970 को संसद में प्रस्तुत
की गई इल्यापेरुमल समिति की रिपोर्ट
है। रिपोर्ट में दलितों पर देश भर में हो
रहे अत्याचारों के विस्तृत विवरण ने
संसद को हिला कर रख दिया था.
इल्यापेरुमल स्वयं सांसद थे, जिन्हें
1965 में समिति के अध्यक्ष के रूप में
नियुक्त किया गया था। इसके अलावा
सन 1972 में महाराष्ट्र में दलितों पर
अत्याचार की दो घटनाओं ने दलित
युवकों को आगबबूला कर दिया। पहली
घटना पुणे जिले के बावड़ा गांव में हुई।
दूसरी घटना महाराष्ट्र के परभणी जिले
के ब्राह्मण द्वारा गांव में दो दलित
महिलाओं को नंगा कर घुमाने की थी।
तब कुछ दलित नेतृत्वकारी युवाओं के
बीच एकमत से निर्णय हुआ कि सरकार
को चेतावनी देते हुए एक वक्तव्य जारी
करना चाहिए। वक्तव्य तैयार किया गया,
जिस पर राजा ढाले, चिंतामान जावले,
वसंत कांबले, भगवान जारेकर और
विनायक रानजने ने हस्ताक्षर किए।
इसके बाद दलितों पर अत्याचारों के
विरोध में प्रदर्शनों का दौर शुरू हुआ।
ऐसे प्रदर्शन बंबई, नागपुर, औरंगाबाद,
परभणी आदि से होते हुए दिल्ली,
आगरा, कानपुर, हरियाणा आदि में हुए.
इसी दौर में राजा ढाले का आलेख
चर्चित लेख काला स्वतन्त्रता दिवस
प्रकाशित हुआ, जो अगस्त, 1972 को
पुणे से निकलने वाली साधना पत्रिका
के विशेष अंक में छपा। उच्च जातियों
के लोगों ने आरोप लगाया कि यह
लेख राष्ट्रध्वज का अपमान करता है।
इस लेख में राजा ढाले ने लिखा-
ब्राह्मणगांव में किसी ब्राह्मण महिला
को नंगा नहीं किया जाता। वहां एक
बौद्ध महिला को नंगा किया जाता है
लेकिन इसकी सजा क्या है? एक माह
की कैद या 50 रुपये जुर्माना। अगर
कोई व्यक्ति राष्ट्रध्वज के सम्मान में
खड़ा नहीं होता, तो उस पर 300 रुपए
का जुर्माना लगाया जाता है। राष्ट्रध्वज
केवल कपड़े का एक टुकड़ा है। वह
कई रंगों से बना एक प्रतीक है। परन्तु
उसका असम्मान करने पर व्यक्ति को
भारी जुर्माना चुकाना पड़ता है लेकिन
अगर एक जीती जागती दलित महिला,
जो अनमोल है उसे नंगा कर दिया
जाता है तो उसके लिए केवल 50
रुपए का जुर्माना निर्धारित है। ऐसे
राष्ट्रध्वज का क्या मतलब है? कोई
भी राष्ट्र उसके लोगों से बनता है। क्या
राष्ट्र के प्रतीक के अपमान को उसके
लोगों के अपमान से अधिक गंभीर
माना जा सकता है?
इस लेख पर महाराष्ट्र विधान सभा
के साथ संसद में भी सवाल उठाए गए।
राजा ढाले को सजा देने की बात भी
की गई। इसके बाद दलित पैंथर्स की
ताबड़तोड़ तरीके से गिरफ़्तारी होने का
सिलसिला शुरू हुआ। दलित उत्पीड़न
की घटनाएं भी बढीं। इसी बीच नामांतर
आंदोलन भी चला। मराठवाड़ा
विश्वविद्यालय का नाम बाबा साहेब डॉ.
आंबेडकर के नाम पर रखना अधिकांश
सवर्णों को स्वीकार नहीं था, जबकि
दलित समुदाय इसके लिए सड़कों पर
उतर चुका था। दलित पैंथर ने भी इसमें
सक्रिय हिस्सेदारी की। इस दौरान
महाराष्ट्र के गांव, कस्बों में भयंकर
दलित उत्पीड़न हुए थे।
लेकिन आज हम देखते हैं कि
भाजपा के शासन में 09 अगस्त 2018
को नई दिल्ली में कुछ युवकों ने पुलिस
की उपस्थिति में भारत के संविधान की
प्रति जलाई जोकि कानून के अनुसार
अपराध है और उसपर अपराधियों को
उपयुक्त सजा मिलनी चाहिए लेकिन इन
आरोपियों को कोई भी सजा नहीं मिली
है चूंकि वे ब्राह्मण व सवर्ण वर्गों से
संबंधित हैं। यह दोहरा मापदंड सरकार
का अनुसूचित जातियों के प्रति तथा
संविधान के प्रति भेदभाव पूर्ण रवैया
दर्शाता है।
अम्बेडकर द्वारा गठित भारतीय
रिपब्लिकन पार्टी के खंडन के बाद
दलित राजनीति में बने एक खाली भाग
को दलित पैंथर ने भरा। दलित पैंथरने
मराठी कला एवं साहित्य को पुनर्जीवित
करने में एक मुख्य भूमिका निभायी।
दलित पैंथर ने हमेशा उग्र राजनीति को
बढ़ावा दिया और अम्बेडकर, ज्योतिराव
गोविंदराव फुले एवं कार्ल मार्क्स के
कदमों पर चलने का दावा किया।
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