2023-12-09 11:16:35
पेशों का धर्म नहीं होता है। लेकिन ये बात भारत में लागू नहीं होती क्योंकि भारत के अलावा और कहीं पर भी जाति व्यवस्था नहीं है। पेशागत व्यवसाय करने वाला कोई भेदभाव नहीं करता। जैसे कोई डॉक्टर इस बात की परवाह नहीं करता कि मरीज की जाति या फिर उसका धर्म क्या है, वैसे ही मोची भी इस बात की परवाह नहीं करता है कि वह जिसके जूते गांठ रहा है या फिर मरम्मत कर रहा है, वह किसका है। सामान्य रूप से पेशों का यही तकाजा होता है। लेकिन भारतीय सामाजिक व्यवस्था इसके ठीक उलट है। उसने पेशों को धर्म से जोड़ दिया है और इसका एक प्रमाण यह कि भारतीय समाज में धोबी हिंदू और मुसलमान दोनों हैं। पारंपरिक रूप से इनका मुख्य कार्य कपड़े धोना, रंगना और इस्त्री करना है। भारत के अलग-अलग राज्यों में इन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है, जैसे-रजक, धूपी, धोबा व कनौजिया आदि। यह एक बड़ा जातीय समूह है, जो उत्तरी, पश्चिमी और पूर्वी भारत में व्यापक रूप से पाए जाते हैं। भारत के अलावा यह बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका में भी निवास करते हैं। धोबी शब्द की उत्पत्ति ‘धावन या धोना’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ होता है-साफ करना या धोकर शुद्ध करना।
अधिकांश धोबी हिंदू धर्म का अनुसरण करते हैं। यह धार्मिक रूप से संत गाडगे महाराज (गाडगे बाबा) का अनुसरण करते हैं और हर साल 23 फरवरी को उनकी जयंती मनाते हैं। आदर्श पुरुष संत बाबा गाडगे जी महाराज जिन्होंने डॉ. अम्बेडकर के समकालीन समाज-सुधार के अनेकानेक कार्यक्रम चलाए। लेकिन अफसोस कि संत गाडगे का संदेश अब भी उत्तर भारत में प्रभावहीन है।
जब ब्रिटिश शासन के दौरान जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ तब जलियांवाला बाग हत्याकांड में धोबी समाज के नत्थू धोबी का योगदान था जिस योगदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है। भारत में धोबी समाज सभी राज्यों, सभी जिलों में निवास करता हैं। बिहार सरकार द्वारा जारी जाति आधारित गणना रिपोर्ट-2022 बताती है कि बिहार में हिंदू धोबी की आबादी 10,96,158 है तो मुस्लिम धोबियों की आबादी 4,09,796। दोनों को मिला दें तो यह आबादी 15 लाख 5 हजार 954 हो जाती है। लेकिन आबादी में यह हिस्सेदारी होना काफी नहीं है। लोकतांत्रिक सियासत में हक केवल आबादी से नहीं मिल जाती है। इसके लिए संसाधनों पर अधिकार अनिवार्य है। शायद इसी के चलते धोबी जाति की बिहार के शासन-प्रशासन में भागीदारी न्यून है।
धोबी जाती का इतिहास
धोबी समाज भारत के मूलनिवासी समुदायों में से एक है और इसका जन्म भी मूलनिवासियों से ही हुआ है- धोबी समाज के लोग अन्य मूलनिवासियों की तरह बराबरी मे भरोसा करने वाले लोग थे और वे सब बिना भेदभाव के मिलजुलकर रहते थे। धोबी समाज के लोग भारत देश के विभिन्न प्रांतों में आर्यो के आक्रमण से पहले से रहते चले आ रहे हैं। आर्य आक्रमण से पहले धोबी समाज के लोग अन्य मूलनिवासियों की तरह खेती और पशु पालन का कम किया करते थे लेकिन आर्यो ने अपने बेहतर हथियारों और घोड़ों के बल पर भारत के मूलनिवासियों को अपना घर बार खेती-बाड़ी छोड़कर जंगल मे रहने के लिए मजबूर कर दिया। स्वाभिमानी मूलनिवासियों ने सेकडों सालों तक आर्यो से हार नहीं मानी और वे अपने पशु धन और खेती के लिए आर्यो से लड़ते रहे। आर्यों ने उन्हे राक्षस, दैत्या, दानव इत्याति नाम दिए और उनकी पराजय की झूठी कहांनिया लिखीं जो आज ब्राह्मण धर्म के ग्रंथ बन गये हैं। रामायण के एक प्रसंग में धोबी का उल्लेख आता है। रामायणकार ने राम और उसके परिजनों के कपड़ों की साफ-सफाई का जिम्मा धोबी जाति को तो दिया ही, साथ ही, गर्भवती सीता का राम द्वारा परित्याग का कारक भी बना दिया। कहानी के तौर पर ही बात करें, तो उस धोबी का क्या कसूर था यदि उसने अपनी पत्नी से यह कह दिया कि सीता जब इतने दिनों तक रावण के पास रहीं, तो क्या उनकी शुचिता अक्षुण्ण रही होगी? यह तो राम को तय करना था कि वे अपनी पत्नी पर विश्वास करते। वैसे भी उन्होंने सीता की अग्निपरीक्षा तो ली ही थी।
मूलनिवासियों और आर्यो की लड़ाई सेकडों सालों तक चलती रही और धीरे-धीरे आर्यों को यह समझ आने लगा की लड़ाई कर के मूलनिवासियों को हराया नहीं जा सकता इसलिए उन्होने अंधविश्वास का सहारा लिया और देवी देवताओं के नाम पर मूलनिवासियों को डराना शुरू कर दिया। भोले-भाले लोग कपटी ब्राह्मणों की चाल को न समझ सके और धीरे-धीरे उनके झाँसे में आ गये।
ब्राह्मणों ने मनघड़त कहानियां बनाई और सब लोगों में फैला दी। दक्षिण का ब्राह्मण वर्ग धोबी जाति को अपने एक मिथकीय देवता वीरभद्र से जोड़ता है। वे कहते हैं कि शंकर ने वीरभद्र को सभी लोगों के कपड़े धोने का आदेश दिया था। इसके पीछे कही जाने वाली कहानी इस तरह है कि शंकर ने वीरभद्र को सजा दी थी और उसका कसूर यह था कि वीरभद्र ने प्रजापति दक्ष के यज्ञ के हवनकुंड में लोगों को बलि के तौर पर जिंदा डाल दिया था। दक्षिण ने वीरभद्र की मूर्ति भी गढ़ रखी है। हालांकि उसके भी चार हाथ हैं। एक में सर्पशस्त्र, एक में तलवार, एक में ढाल और एक में कमल का फूल है। दिलचस्प यह कि ब्राह्मणों ने वीरभद्र का वाहन भी तय कर रखा है। वाहन भी क्या ‘गधा’। सालों तक मूलनिवासी इस झूठ को समझकर इस से बचते रहे लेकिन जब झूठ भी सालों तक बोला जाए तो वो सही लगने लगता है इसी तरह मूलनिवासियों को भी धीरे-धीरे भरोसा होने लगा। भोले-भाले मूलनिवासी जहाँ चालाक ब्राह्मणों की बातों में आ गए तो फिर ब्राह्मणों ने धीरी-धीरे खुद को भगवान के बराबर और मूलनिवासियों को जानवर के बराबर बताकर उन्हें जर्जर जिंदगी जीने पर मजबूर कर दिया। इस तरह मूलनिवासी आर्य ब्रह्मणों के गुलाम बन कर रह गये।
ब्राह्मणों ने मूलनिवासियों में फुट डालने के लिए और हमेशा के लिए उन्हें दबाकर रखने के लिए जाति प्रथा को शुरू किया और अपने हिसाब से अपने हित के लिए सारे काम मूलनिवासियों में बाँट दिए और उनमें ऊंच-नीच का भाव भर दिया ताकि वे खुद एक दूसरे से ऊपर नीचे के लिए लड़ते रहें और ब्राह्मण राज करते रहें। जो आज तक चला आ रहा है।
जाति इतिहासविद डॉ.दयाराम आलोक के मतानुसार धोबी समाज का जन्म उन मूलनिवासियों से हुआ जिन्हें लोगों के पाप मुक्त करने का काम मिला। शुरूआत में यह काम बड़ा सम्मान जनक था। लोग अपनी शुद्धि और मुक्ति के लिए धोबी समाज के लोगों के घर जाते और फिर उन्हें घर का पानी छिड़क कर पवित्र एवं पाप मुक्त कर दिया जाता। लेकिन धीरे-धीरे इस से धोबी समाज की इज्जत बढ़ने लगी और फिर ब्राह्मणों को लगा की उनसे गलती हो गई है। इसलिए उन्होनें धोबी समाज के लोगों का तिरस्कार करना शुरू कर दिया। झूठी कहानियां लिखकर और लोगों को भड़का-भड़काकर सदियों बाद उन्हें पाप मुक्ति दाता से कपड़े धोने वाला बनाकर रख दिया।
लेकिन आज सभी मूलनिवासियों की तरह धोबी समाज के लोग भी पढ़ लिख गये हैं और ब्राह्मणों की चाल को समझ गये है। वे ये समझ गये हैं की वे किसी से कम नहीं है और कुछ भी कर सकते है। जो काम उन्हे बेइज्जत करने के लिए उनपर थोपा गया था आज वो काम छोड़कर डॉक्टर इंजिनियर कलेक्टर बन रहे हैं। वे ब्राह्मणों की चाल को समझ गये हैं की किस तरह मंदिर भगवान के नाम पर उनसे काम कराया जाता रहा, उन्हें अपमानित किया जाता रहा, अब वे और अपमान नहीं सहने वाले। सम्मान से जीना हर इंसान का हक है और वे ये हक लेकर रहेंगे।
कहां किस कैटेगरी में आता है धोबी समाज हैं?
आरक्षण प्रणाली के अंतर्गत इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग या अनुसूचित जाति के रूप में वगीर्कृत किया गया है।
उत्तर प्रदेश: उत्तर प्रदेश में इन्हें ओबीसी और अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।
आंध्र प्रदेश: आंध्र प्रदेश में इन्हें ओबीसी के रूप में वगीर्कृत किया गया है। यहां इन्हें धूपी या रजक के रूप में जाना जाता है। यहां यह अपने पारंपरिक कार्य के साथ कृषि भी करते हैं। इनमें से कई अब डॉक्टर, इंजीनियर, पत्रकार, समाज सेवक, वकील आईटी प्रोफेशनल और राजनेता भी हैं।
असम: असम में इन्हें धूपी ही कहा जाता है. इन्हें अनुसूचित जाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।
बिहार: बिहार के मुजफ्फरपुर, वैशाली, सिवान, पूर्णिया और पूर्वी चंपारण जिलों में इनकी बहुतायत आबादी है। यहां इन्हें अनुसूचित जाति में शामिल किया गया है।
झारखंड: झारखंड में यह एससी कैटेगरी में आते हैं।
मध्य प्रदेश: भोपाल, रायसेन और सीहोर जिलों में इन्हें अनुसूचित जाति में रखा गया है, जबकि राज्य के अन्य जिलों में इन्हें ओबीसी के रूप में वगीर्कृत किया गया है।
उड़ीसा: यहां यह मुख्य रूप से पूर्वी उड़ीसा तटीय जिलों जैसे कटक, पुरी, बालासोर और गंजम जिलों में निवास करते हैं। मध्य और पश्चिमी उड़ीसा में यह कम संख्या में निवास करते हैं। यहां इन्हें अनुसूचित जाति में शामिल किया गया है। वहीं दिल्ली, उत्तराखंड और राजस्थान में इन्हें अनुसूचित जाति के रूप में वगीर्कृत किया गया है।
पूर्वोत्तर: मणिपुर, मेघालय और मिजोरम में इन्हें धूपी कहा जाता है, और इन्हें एसटी कैटेगरी में रखा गया है।
त्रिपुरा : त्रिपुरा में यह धोबा के नाम से जाने जाते हैं, और इन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।
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