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आज के दौर में ‘गुलामगिरी’ पुस्तक की प्रासंगिकता

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2023-05-27 06:05:06

महात्मा ज्योतिराव गोविंदराव फुले एक महान विचारक, समाज सेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रांतिकारी कार्यकर्ता थे जिन्होंने भारतीय समाज की सामाजिक संरचना को जड़ता से ध्वस्त करने का काम किया। महिलाओं, दलितों एवं शूद्रों-अतिशूद्रों के जीवन में परिवर्तन लाने के लिए वे आजीवन संघर्षरत रहे। महात्मा ज्योतिराव फुले का जन्म 11 अप्रैल सन 1827 को पुणे में हुआ था। इन्हें ‘महात्मा फुले’ एवं ‘ज्योतिबा फुले’ के नाम से भी जाना जाता है। महात्मा फुले जब एक वर्ष की अल्पायु में थे तब इनकी माताजी का निधन हो गया था। ज्योतिबा फुले का लालन- पालन सगुनाबाई नामक एक दाई ने किया था। सगुनाबाई ने उन्हें माँ की ममता और दुलार दिया। महात्मा फुले का परिवार कई पीढ़ी पहले सतारा से पुणे आ कर बस गया था। ज्योतिबा फुले के परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी इनका परिवार बेहद गरीब था। इनका परिवार जीवन-यापन करने के लिए बाग- बगीचों में माली का काम करता और फूलों के गजरे आदि बना कर बाजार में बेचता था। उस समय पेशवाओं का दौर था। सात वर्ष की आयु में ज्योतिबा को गाँव के स्कूल में पढ़ने भेजा गया। जातिगत भेद-भाव के कारण उन्हें विद्यालय छोड़ना पड़ा। विद्यालय छोड़ने के बाद भी उनमें पढ़ने की ललक बनी रही। घरेलू कार्यों के बाद जो समय बचता उसमें वह किताबें पढ़ते थे। ज्योतिबा पास-पड़ोस के बुजुर्गों से विभिन्न विषयों पर चर्चा करते थे। लोग उनकी सूक्ष्म और तर्क संगत बातों से बहुत प्रभावित होते थे। ज्योतिबा फुले ज्यादा नहीं पढ़ पाये थे उनकी शुरूआती पढ़ाई मराठी भाषा में हुई थी। कई कारणों से स्कूल छूट जाने के बाद जब वह दोबारा स्कूल गए तो इक्कीस वर्ष की आयु में अंग्रेजी की सातवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी की। इनका विवाह सन 1840 में सावित्री बाई फुले से हुआ, जो बाद में एक प्रसिद्ध समाजसेवी बनी। दलितों के उत्थान व स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में दोनों पति- पत्नी ने मिलकर काम किया।

सन 1848 में इन्होंने पुणे में अछूतों के लिए पहला स्कूल खोला और भारत के इतिहास में क्रांति का पहला शंखनाद फूंका। इसी तरह का कार्य उन्होंने सन 1857 में लड़कियों के लिए स्कूल खोलकर किया जो भारत में लड़कियों का पहला स्कूल था। उस स्कूल में पढ़ाने के लिए कोई शिक्षक न मिलने पर ज्योतिबा फुले की पत्नी सावित्री बाई फुले आगे आयी। अपने इन क्रांतिकारी कार्यों की वजह से फुले और उनके सहयोगियों को तरह-तरह के कष्ट उठाने पड़े। उन्हें बार-बार घर बदलना पड़ा। ज्योतिबा फुले की हत्या करने की भी कोशिश की गई लेकिन इतना सब होने के बावजूद भी वे अपनी राह पर डटे रहे। ज्योतिबा फुले की मान्यता थी कि महार, कुनबी, माली आदि शूद्र कही जानेवाली जातियां कभी क्षत्रिय मानी जाती थी लेकिन जातिवादी षड्यंत्र का शिकार हो कर ये सभी जातियां दलित कहलायी। महात्मा फुले ने अपने उद्देश्य को संस्थागत रूप देने के लिए 27 सितंबर सन 1873 में ‘सत्यशोधक’ समाज नामक संस्था का गठन किया। इसका मुख्य उद्देश्य ब्राह्मणवाद और उसकी कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठाना था। मूर्ति पूजा, कर्मकाण्डों, पुजारियों का वर्चस्व, पुनर्जन्म और स्वर्ग के सिद्धांत आदि जैसे मुद्दे इसमें शामिल थे। 1 जून सन 1873 को महात्मा ज्योतिराव फुले द्वारा लिखित ‘गुलामगिरी’ पुस्तक भी प्रकाशित हुई। गुलामगिरी कोई मामुली किताब नहीं है बल्कि क्रांतिकारी परिवर्तन का दहकता हुआ दस्तावेज है। एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान के साथ गुलामों की जैसा व्यवहार करना, सभ्यता व मानवता के सबसे शर्मनाक अध्यायों में से एक है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि यह शर्मनाक अध्याय दुनिया भर के लगभग सभी सभ्यताओं के इतिहास में दर्ज है। भारत में जातिप्रथा के कारण पैदा हुआ जबरदस्त इंसान-भेद आज तक बना हुआ है। ‘गुलामगिरी’ इसी भेद-भाव की बुनियाद पर चोट करने वाली किताब है।

इस किताब में उन्होंने धार्मिक हिंदू ग्रंथों, अवतारों और देवताओं के साथ-साथ ब्राह्मणों और सामंतों के वर्चस्व को नए सिरे से परिभाषित किया है। साथ ही अंग्रेजों के कामकाज की भी जाति-व्यवस्था के चश्मे से व्याख्या की है। सन 1873 में लिखी गई इस किताब का उद्देश्य दलितों और अस्पृश्यों को तार्किक तरीके से ब्राह्मण वर्ग की उच्चता के झूठे दंभ से परिचित कराना था। इस किताब के माध्यम से ज्योतिबा फूले ने दलितों को हीनता बोध से बाहर निकलकर, आत्मस म्मान से जीने के लिए भी प्रेरित किया है। इस मायने में यह किताब काफी महत्वपूर्ण है कि यहां इंसानों में परस्पर भेद पैदा करने वाली आस्था को तार्किक तरीके से कटघरे में खड़ा किया जाए।

‘गुलामगिरी’ किताब में दो पात्रों (धोंडिराव और ज्योतिराव फुले) के सवालजवा बों के माध्यम से जाति और धर्म की तार्किक व्याख्या की कोशिश की गई है। एक जगह हिंदू धर्म के मत्स्य अवतार की सच्चाई पर बात करते हुए ज्योतिराव फुले धोंडिराव से कहते हैं - ‘उसके बारे में तू ही सोच कि मनुष्य और मछली की इन्द्रियों में, आहार में, मैथुन में और पैदा होने की प्रक्रिया में कितना अन्तर है उसी प्रकार उनके मस्तिष्क में, मेधा में, कलेजे में ,फेफड़े में, अंतड़ियों में, गर्भ पालने-पोसनो की जगह में, और प्रसूति होने के मार्ग में कितना चमत्कारिक अन्तर है... नारी स्वाभाविक रूप से एक ही बच्चे को जन्म देती है। लेकिन मछली सबसे पहले कई अण्डे देती है...कुछ मूर्ख लोगों ने मौका मिलते ही अपने प्राचीन ग्रन्थों में इस तरह की काल्पनिक कथाओं को घुसेड़ दिया होगा।

अंग्रेजों के शासना काल से मुक्ति और संघर्ष के इतिहास के विषय में बहुत कुछ पता है, लेकिन हमें यह भी पता होना चाहिए कि स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान देश का एक बड़ा दलित तबका, अंग्रेजों से उम्मीद लगाए था कि ब्राह्मणशाही से मुक्ति दिलाने में कारगर साबित होगा। ज्योतिबा फूले जैसे करोड़ों भारतीयों के लिए जातिगत गुलामी का दंश इतना गहरा था कि इसके सामने वे राजनीतिक गुलामी को कुछ नहीं समझते थे। दिलचस्प बात यह है कि वे अंग्रेजों के शासना को अत्याचारियों के शासन की तरह से भी नहीं देख रहे थे।

एक जगह ज्योतिबा फुले लिखते हैं - जैसे किसी व्यक्ति ने बहुत दिनों तक जेल के अन्दर अपनी जिन्दगी गुजार दी हो, वह कैदी अपने साथी मित्रों से, बीवी-बच्चों से, भाई- बहनों से मिलने के लिए या स्वतन्त्र रूप से आजाद पंछी की तरह घूमने के लिए बड़ी उत्सुकता से जेल से मुक्त होने के दिन का इन्तजार करता है, उसी तरह का इन्तजार इन लोगों को भी बेसब्री से होना स्वाभाविक ही है। ऐसे समय बड़ी खुशकिस्मती कहिए कि ईश्वर को उन पर दया आयी। इस देश में अंग्रेजों की सत्ता कायम हुई और उनके द्वारा ये लोग ब्राह्मणशाही की शारीरिक गुलामी से मुक्त हुए। इसीलिए ये लोग अंग्रेजी राजसत्ता का शुक्रिया अदा करते हैं... यदि वे यहां न आते तो ब्राह्मणों ने, ब्राह्मणशाही ने उन्हें कभी सम्मान और स्वतन्त्रता की जिन्दगी न गुजारने दी होती। ज्योतिबा अधिकतर हिंदू ग्रंथों को अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए लिखी गई किताबों से बढ़कर कुछ भी नहीं मानते। इस कारण वे ऐसी सभी किताबों का तिरस्कार और बहिष्कार करना चाहते थे जो एक इंसान को दूसरे इंसान से हीन व्यवहार करने को प्रेरित करे। वे कहते हैं - ‘इन ग्रंथों के बारे में किसी ने कुछ भी सोचा होता कि यह बात कहां तक सही है क्या वे सचमुच ईश्वर द्वारा प्राप्त हैं तो उन्हें इसकी सच्चाई तुरन्त समझ में आ जाती। लेकिन इस प्रकार के ग्रन्थों से सर्वशक्तिमान, सृष्टि का निमार्ता जो परमेश्वर है, उसकी समानतावादी दृष्टि को बड़ा गौणत्व प्राप्त हो गया है। इस तरह के हमारे जो ब्राह्मण-पण्डा-पुरोहित वर्ग के भाई हैं, जिन्हें भाई कहने में भी शर्म आती है क्योंकि उन्होंने किसी समय शूद्रादि-अतिशूद्रों को पूरी तरह से तबाह कर दिया था और वे ही लोग अभी धर्म के नाम पर, धर्म की मदद से इनको चूस रहे हैं...उन ग्रंथों को देखकर-पढ़कर हमारे अंग्रेज, फ्रेन्च, जर्मन, अमेरिकी और अन्य बुद्धिमान लोग अपना यह मत दिये बिना नहीं रहेंगे कि उन ग्रन्थों को (ब्राह्मणों ने) केवल अपने मतलब के लिए लिख रखा है।’

भारतीय समाज में जब से ब्राह्मणों की सत्ता कायम हुई है तब से लगातार जुल्म और शोषण का शिकार ये अस्पृश्य कही जाने वाली जातियां रही है। ये लोग हर तरह की यातनाओं और कठिनाइयों में अपने दिन गुजार रहे है। इसलिए इन लोगों को इन बातों की ओर ध्यान देना चाहिए और गंभीरता से सोचना चाहिए। यह कहा जाता है कि इस देश में ब्राह्मणों- पुरोहितों की सत्ता कायम हुए लगभग तीन हजार साल से ज्यादा समय बीत गया। ये लोग परदेश से यहाँ आए। उन्होंने यहाँ के मूल निवासियों पर बर्बर तरीके से हमले करके उन लोगों को अपने घर-बार से, जमीन-जायदाद से वंचित करके अपना गुलाम (दास) बना लिया। उन्होंने इनके साथ बड़ा ही अमानवीयता से भरा रवैया अपनाया होगा।

महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा थी। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते थे। वे उसे ‘ब्राह्मणवाद’ नाम से ही संबोधित करते थे। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को देवी रूप देने की कोशिश की। जिसे महात्मा फुले ने पूरी तरह से खारिज कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था है, जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी है। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा (अपने पक्ष की स्थापना पर बल) उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया। उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही जोरदार विरोध किया। कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या देवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए। उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी। सारांशत: कह सकते हैं कि गुलामगिरी मूलत: मराठी में लिखी गई किताब है जिसका डॉ विमलकीर्ति ने हिंदी अनुवाद किया है। भाषा के हिसाब से देखा जाए तो 146 साल पहले लिखी गई इस किताब का उन्होंने अच्छा अनुवाद किया है। यथास्थितिवाद किसी भी समाज और दौर के लिए खतरनाक है। ज्योतिबा फूले की यह किताब यथास्थितिवाद से लड़ने का रास्ता दिखाती है और हौसला भी देती है। ज्योतिबा फुले जातिवाद का दंश झेलकर स्वयं हीनता में नहीं जाते, बल्कि दूसरों को हीनता से बाहर आने का रास्ता दिखाते हैं। समाज में जब तक जातिव्यवस्था के अंश बचे रहेंगे, तब तक गुलामगिरी जैसी क्रांतिधर्मा किताबों की प्रासंगिकता बनी रहेगी। सभी बहुजन बंधुओं से आग्रह है कि वे ‘गुलामगिरी’ जैसी महत्त्वपूर्ण किताब को अवश्य पढ़े, मनन करें और बुद्धि बल से ब्राह्मणवाद के नाश का शंखनाद करें। बहुजन समाज अपने विवेक और तर्क के आधार पर निर्णय ले।

Written By:

Chetan Singh

Arun Kumar, Delhi
उत्कृष्ट लेखन _ बंधु
2023-06-10 06:28:27
 
 
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01 जनवरी : मूलनिवासी शौर्य दिवस (भीमा कोरेगांव-पुणे) (1818)

01 जनवरी : राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले और राष्ट्रमाता सावित्री बाई फुले द्वारा प्रथम भारतीय पाठशाला प्रारंभ (1848)

01 जनवरी : बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा ‘द अनटचैबिल्स’ नामक पुस्तक का प्रकाशन (1948)

01 जनवरी : मण्डल आयोग का गठन (1979)

02 जनवरी : गुरु कबीर स्मृति दिवस (1476)

03 जनवरी : राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले जयंती दिवस (1831)

06 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. जयंती (1904)

08 जनवरी : विश्व बौद्ध ध्वज दिवस (1891)

09 जनवरी : प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका फातिमा शेख जन्म दिवस (1831)

12 जनवरी : राजमाता जिजाऊ जयंती दिवस (1598)

12 जनवरी : बाबू हरदास एल. एन. स्मृति दिवस (1939)

12 जनवरी : उस्मानिया यूनिवर्सिटी, हैदराबाद ने बाबा साहेब को डी.लिट. की उपाधि प्रदान की (1953)

12 जनवरी : चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु परिनिर्वाण दिवस (1972)

13 जनवरी : तिलका मांझी शाहदत दिवस (1785)

14 जनवरी : सर मंगूराम मंगोलिया जन्म दिवस (1886)

15 जनवरी : बहन कुमारी मायावती जयंती दिवस (1956)

18 जनवरी : अब्दुल कय्यूम अंसारी स्मृति दिवस (1973)

18 जनवरी : बाबासाहेब द्वारा राणाडे, गांधी व जिन्ना पर प्रवचन (1943)

23 जनवरी : अहमदाबाद में डॉ. अम्बेडकर ने शांतिपूर्ण मार्च निकालकर सभा को संबोधित किया (1938)

24 जनवरी : राजर्षि छत्रपति साहूजी महाराज द्वारा प्राथमिक शिक्षा को मुफ्त व अनिवार्य करने का आदेश (1917)

24 जनवरी : कर्पूरी ठाकुर जयंती दिवस (1924)

26 जनवरी : गणतंत्र दिवस (1950)

27 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर का साउथ बरो कमीशन के सामने साक्षात्कार (1919)

29 जनवरी : महाप्राण जोगेन्द्रनाथ मण्डल जयंती दिवस (1904)

30 जनवरी : सत्यनारायण गोयनका का जन्मदिवस (1924)

31 जनवरी : डॉ. अम्बेडकर द्वारा आंदोलन के मुखपत्र ‘‘मूकनायक’’ का प्रारम्भ (1920)

2024-01-13 11:08:05